अंतिम फेरा Vivek Tariyal
अंतिम फेरा
Vivek Tariyalह्रदय गति भी तीव्र हो चली,
मन घबराहट परिपूर्ण हुआ,
ठहर गई इक क्षण को वह,
जब अंतिम फेरा सम्पूर्ण हुआ।
नयनों ने चंचलता खो दी,
पग भारी-भारी लगते थे,
प्रश्न लहर उठती थी मन में,
उत्तर जिनके न मिलते थे।
तजना होगा बाबुल अँगना?
मन क्रंदन परिपूर्ण हुआ,
ठहर गई इक क्षण को वह
जब अंतिम फेरा सम्पूर्ण हुआ।
आतुर आँखें खोज रही थीं
त्यागमूर्ति सी माता को,
सखी समान थी जिसके संग वह,
अपनी उस भाग्यविधाता को।
नयनों से अश्रुधार बही,
मन भावों से परिपूर्ण हुआ,
ठहर गई इक क्षण को वह,
जब अंतिम फेरा सम्पूर्ण हुआ।
नव-जीवन के स्वप्न सलोने
देखे थे जो लड़कपन में,
गुड्डा-गुड़िया का ब्याह रचाया,
मिल बहना संग आँगन में।
धुंधला सा अब पथ है दिखता,
मन शंका परिपूर्ण हुआ,
ठहर गई इक क्षण को वह,
जब अंतिम फेरा सम्पूर्ण हुआ।
रह जाएँगे सब जन पीछे,
आगे हमको बढ़ना है,
मन को कर पत्थर कठोर
इस नौका पर चढ़ना है।
बीते क्षण जीवित हो उठे,
मन मृगतृष्णा परिपूर्ण हुआ,
ठहर गई इक क्षण को वह,
जब अंतिम फेरा सम्पूर्ण हुआ।
लक्ष्मी बन मैं उस घर की,
कुल का मान बढ़ाऊँगी,
अपना सबकुछ कर अर्पण,
घर की शोभा कहलाऊँगी।
मेघ हटे दुःख के मन से,
मन लज्जा से परिपूर्ण हुआ,
ठहर गई इक क्षण को वह,
जब अंतिम फेरा सम्पूर्ण हुआ।
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एक स्त्री के जीवन में परिणय सूत्र में बँधने का फैसला कदाचित जीवन का सबसे बड़ा फैसला होता है। ऐसी स्थिति में प्रतिक्षण उसके मन में आने वाले समय को लेकर अनेकों शंकाएँ पैदा होती हैं। रह-रह कर बाबुल के आँगन को छोड़कर जाने का विचार उसे कचोटता है एवं उस घर में बिताए समय की स्मृतियाँ उसके समक्ष प्रकट हो जाती हैं। अपनों को छोड़कर एक नए संसार में प्रवेश करने का विचार जहाँ एक ओर उसे भावाभिभूत कर देता है वहीं दूसरी ओर दाम्पत्य जीवन के प्रति मन में उत्साह भी होता है। प्रस्तुत कविता अंतिम फेरे के पूर्ण होने पर स्त्री मन की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।