गृह अपना छोड़ चला मैं  Vinay Kumar Kushwaha

गृह अपना छोड़ चला मैं

Vinay Kumar Kushwaha

तोड़ कर ये मोह का बंधन,
गृह अपना छोड़ चला मैं।
कुछ पाने की हसरत में,
जाने अब किस ओर चला मैं।
 

न है कोई ठौर-ठिकाना,
बस वैसे ही दौड़ चला मैं।
सपनों की स्वर्णिम मंजिल की,
सारी कड़ियाँ जोड़ चला मैं।
 

काँटों में भी है राह बनाना,
हर बाधा को तोड़ चला मैं।
कुछ उलझन कुछ आशाएँ,
आशीष स्वजनों के बटोर चला मैं।
 

लेकर हौसलों की ऊँची उड़ानें,
करने सबसे होड़ चला मैं।
तोड़कर ये मोह का बंधन,
गृह अपना छोड़ चला मैं।

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