धरती RATNA PANDEY
धरती
RATNA PANDEYरो रही है धरती, आसमाँ देख रहा है,
बेबसी पर धरा की, वह भी तड़प रहा है।
क्या करोगे बना कर मंज़िलों के महल,
जब बच ही न पाएगी ज़मीं, उगाने को फसल।
क्या खाओगे और क्या खिलाओगे
जिनके लिए बाँधी हैं अटारियाँ,
क्या उन्हें भूखा ही सुलाओगे ?
नहीं होगा कोई जवाब तब हमारे पास,
संभल जाओ, समझ जाओ,
धरती को धरती ही रहने दो ,
अपने लालच का ज़रिया ना बनाओ।
सहनशक्ति को धरा की ना आज़माओ तुम,
दिखा दिया यदि तांडव धरा ने,
महल अटारियाँ सब धराशायी हो जाएँगे।
ढूँढ़ नहीं पाओगे अस्तित्व अपना,
अपनों को नहीं फिर बचा पाओगे।
हैं और भी ग्रह ब्रह्मांड में,
किन्तु नहीं कोई जीवन है वहाँ पर,
भाग्यशाली हैं हम,
जो जन्म हुआ है हमारा पृथ्वी पर।
वसुंधरा माँ है हम सबकी,
जो रहने को घर और खाने को अन्न देती है।
हमें भी औलाद का फ़र्ज़ निभाना है,
लालच का पेड़ नहीं अपितु,
हरीभरी बगिया से सुसज्जित धरा को बनाना है,
हरीभरी बगिया से सुसज्जित धरा को बनाना है।
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ब्रह्माण्ड में सिर्फ़ धरती ही है जहाँ इन्सान रह सकता है, खेती कर सकता है, किन्तु लालच के वशीभूत होकर इन्सान खेती की ज़मीन पर विशाल इमारतें खड़ी कर रहा है। इन्सान सोच नहीं पा रहा है कि खेत नष्ट हो जाएँगे तो हम अन्न कहाँ उगाएँगे और क्या खाएँगे। मेरी कविता इसी बात पर आधारित है।