कविता चल पड़ी Ravi Panwar
कविता चल पड़ी
Ravi Panwarरूठ कर रात मुझसे हवा चल पड़ी,
क्यूँ मुझको रुलाने फ़िज़ा चल पड़ी।
था कि रमजान अपने पूरे सवाब पर,
क्यूँ चाँद को छिपाने घटा चल पड़ी।
है मेरी जो आँखे बता दो जरा,
क्यूँ नज़रें चुराने बेवफा चल पड़ी।
वो परवानों की खता, क्या थी बता,
क्यूँ उनको जलाने शमा चल पड़ी।
मेरे खामोश चेहरे को पढ़ती ग़ज़ल,
क्यों मुझको मनाने हर दफा चल पड़ी।
और मेरे शब्दों में उर्दू, हरफों में हिंदी,
क्यों हर सरहद मिटाने ये कविता चल पड़ी।