मधुशाला  VIKAS UPAMANYU

मधुशाला

VIKAS UPAMANYU

उठता है जब कोई बवंडर मेरे दिल में,
बुला लेती है मुझको मेरी मधुशाला,
ये रंग न जाने कोई जात न कोई बोली,
बस बन जाती है मेरी हाला,
देखो हर रंग चढ़ता है इस पर
कैसे बैठी ओढ़ दुशाला,
पी लेता हूँ मैं भी अंजुमन के इसको,
पहन लेता हूँ इसकी वरमाला।
 

हदें प्यार की गुज़र गईं,
सिखा गईं नशे-मन का नजराना,
बाहर से तपता सूरज है
अंदर वर्षा का है पानी,
रात चाँदनी छटकी है,
बन ‘साकी’ प्रेम की मधुशाला।
 

अब वितृप्त हो चुकी है
मेरे सपनों की पाठशाला,
गुज़रा था मेरा जिसमें बचपन
देखा था मैंने जिसमें अपना यौवन,
छूट गया सब पीछे, रह गया मेरे हाथों में
मदिरा का अब ये प्याला।
 

दुनिया के हर ताबीरों में
छिपी बैठी है ये बाला,
मेरे अंग रंग की है ये साथी,
नहीं छोड़ती अकेला मुझको,
बुला लेती है मुझको मेरी मधुशाला।

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