कर रही कुछ शोर धड़कन  ARCHIT SHARMA

कर रही कुछ शोर धड़कन

ARCHIT SHARMA

आज नीरस व्योम में काली घटाएँ छा रहीं,
साथ ये नटखट हवा केशों को छू के जा रही,
सुगबुगाहट सी उठी है और उमड़ती हिचकियाँ,
कर रही कुछ शोर धड़कन याद उनकी आ रही।
 

रवि प्रभा कुछ झाँकती है बादलों के घूँघट से,
छलछलाते नीर का स्वर उठ रहा है पनघट से,
कोयलों के कूकने की हो रही है पुनरावृति,
है उभरती एक स्मृति आज भीगे नयन-पट से।
 

गिर रहीं ये मेह बून्दें मन हृदय की आग पर,
कंठ में गाने की आशा इस प्रणय के राग पर,
कह रहा सारा धरातल क्यों विरह की वेदना,
क्यों व्यथा में डूबता मन उस जटिल अनुराग पर।
 

आज पानी से धुले जो उड़ रहे थे धूल के कण,
हाँ मुझे वो चुभ रहे थे बन गए जो शूल से क्षण,
श्यामघन की गर्जनायें फिर मुझे समझा रहीं,
पर कर रही कुछ शोर धड़कन याद उनकी आर ही।

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