स्वातंत्र्य समर का शंखनाद  सत्येंद्र चौधरी "सत्या"

स्वातंत्र्य समर का शंखनाद

सत्येंद्र चौधरी "सत्या"

स्वातंत्र्य समर में शंखनाद कर
मंगल ने मंगल गाया था,
और भगत, सुखदेव आदि ने
अंग्रेज किले को ढ़ाया था।
 

रानी गिर गई शेखर गिर गये
और भिड़े सावरकर,
बिस्मिल जी अशफ़ाक़ अमर हुए,
फाँसी के फंदे चढ़कर।
 

तुम कहते हो सत्य अहिंसा
से 'आज़ादी' आई थी?
अरे लाखों बहनों ने आगे बढ़कर
अपनी राखियाँ चढ़ाई थीं।
 

नेताजी सत्ता से बोले-
छिन्न-भिन्न सब कर दूँगा,
भारत वालों तुम खून मुझे दो,
मैं तुमको आज़ादी दूँगा।
 

कालापानी, दुष्कर फांसी,
घायल दिल्ली, बेबस झाँसी,
जब जलियाँवाला लाल हुआ
क्या होली मिलन समारोह था?
सब रक्त रुधिर से रंजित थे,
ना अबीर, गुलाल ना पानी था।
 

तब आज़ादी की दुल्हन से
मतवालों ने मनुहार किया,
जब जगत जननी जगदम्बा को
अपने मस्तक पे सवार किया।
 

तब वीर ऊधम ने घर में जाकर
डायर को गोली मारा था,
वीर मुण्ड की माला से
काली के तन को संवारा था।
 

जब जड़ें हिलीं, हौसले पस्त,
अंग्रेजों को एहसास हुआ,
सत्ता सौंपी तब मेरे देश को,
उनका "सत्या" नाश हुआ।

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