बूँदें RAHUL Chaudhary
बूँदें
RAHUL Chaudharyगीले धूप बूंदों को
यूँ चीरकर किरणों को,
छू रही यूँ ठंडी चुभन से रूह को,
रोम-रोम उत्प्रेरित होकर हस्त करों को,
धो रही सत्मन से टोह को।
रेंग रहीं जल वर्षा की बूंदें,
ज्यों धरा के कण में सन के,
धूल उड़ा के धो कर के
समेट लिया फिर साथ लेके।
बादल छूने के मोह में
धरा को किंचित तत्पर,
हुई तना तनी इन हवाओं से
बूंदों को ले उड़ चला यूँ ऊपर।
फुहारों को यूँ दिशा भ्रम हुआ,
बरस रही कभी यहाँ कभी वहाँ,
तोड़ मरोड़ शाखों ने झेला
रह गया बादल यूँ मुँह खोला।
उड़ा कर ये हवाएँ दूर तक ले जाती,
इधर-उधर उमड़-घमड़ कर
गोद में धरती के कूदे,
मखमली सा प्रतीत यूँ
फिसल के हवाओं से,
सोने को आतुर ये बूँदें
टपक के हवाओं से।
गहमा गहमी अँधियों से,
उठा पटक यूँ हो रही है
पहुंचने को सबसे पहले।