पुरूष- एक आत्मकथा  shivam singh

पुरूष- एक आत्मकथा

shivam singh

तू नील गगन में उदित बरसात की फुहार है,
तू सात रंगों से बना प्रकृति का दुलार है,
तू धूप है, तू छाँव है, तू ढाल है, तलवार है,
तू रेत की नमी से प्यास सोखता अवतार है।
 

तू अनगिनत बलिदान है, तू जंग का मैदान है,
तू म्यान में पड़े हुए तलवार का अभिमान है,
तू कृष्ण है, तू राम है, कभी अर्धनारी नाम है,
तू माँग मे भरे हुए सिंदूर की ज़ुबान है।
 

तू सात फेरों में दिए हर इक वचन का मान है,
दाम्पत्य जीवन से मिला लव-कुश सा तू वरदान है,
तू लहरों में भी नाव खेता खेवट सा मल्लाह है,
तू धर ज़मीं पर पाँव अंगद सा सुदृढ इंसान है।
 

तू इस ज़मीं को आसमाँ से जोड़ता जांबाज़ है,
स्वच्छंद विचरण कर रहा तू व्योम का अरबाज़ है,
तू मेघ की है गर्जना, सौदामिनी ललकार है,
तू सूर्य की आराधना करता हुआ परवाज़ है।
 

तू माँ का एक अंश है, पिता का सारा वंश है,
तू रेशमी धागों में तैरता हुआ मनु हंस है,
तू जश्न है, संघर्ष है, जगत में तू अरिहंत है,
चौदह बरस वनवास काटता हुआ रघुवंश है।
 

गणित की एक भाषा में तू जोड़ने की आशा है,
तू शून्य को भी साथ लेके घूमती परिभाषा है,
न्यूटन भी तू, डालटन भी तू, विज्ञान का ज्ञानी भी तू,
तेरी अंतरिक्ष में भी घर बनाने की अभिलाषा है।

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