एक कहानी एनआरआई की ज़ुबानी  RATNA PANDEY

एक कहानी एनआरआई की ज़ुबानी

RATNA PANDEY

मुझे याद आती है मिट्टी मेरे वतन की,
जिसमें चलकर पलकर बड़ा हुआ मैं,
देश भक्ति के गीतों को सुनकर पला बढ़ा मैं,
जवान हुआ सपने हज़ारों दिल में पालता रहा मैं।
 

मेहनत के हर इम्तिहान में ख़ुद को तराशता गया मैं,
हर इम्तिहान में स्वयं को साबित करता गया मैं,
किंतु विडम्बना देखिए हर जगह आरक्षण
मुझे फेल करता गया।
 

मैं हर रोज़ इस चक्रव्यूह में फँसता गया,
धधक रही थी ज्वाला मन में
कैसा यह व्यवहार हुआ,
मेरी योग्यता के बदले
कैसा मेरा तिरस्कार हुआ,
उम्र में बड़ा था,
परिवार का था मेरे कन्धों पर पालन पोषण,
किंतु भक्षक बन गया मेरे लिये आरक्षण।
 

मेरे हुनर का जादू यहाँ ना चल सका,
परिवार मेरा आर्थिक तंगी से गुज़रने लगा,
माता-पिता की विवशता ने मुझे रुला दिया,
उन्हें रोता मैं ना देख पाया,
अपनी योग्यता के दम पर
उन्हें मैं कुछ भी नहीं दे पाया।
 

विवश हो गया,
फिर हुनर को अपने मैं बेचने निकल आया,
नहीं चाहता था कभी ऐसा कदम उठाऊँ,
चाह थी जीवन अपने परिवार
और देश के बीच ही बिताऊँ ।
 

किंतु दिल मेरा दिमाग से हार गया और मैं विदेश आ गया,
बन गया स्वयं के देश के लिये एनआरआई मैं,
बदकिस्मती ऐसी हुई कि मैं देश के काम ना आ सका।
 

आरक्षण के रखवालों ने मुझ जैसे कितनों
को एनआरआई बना दिया,
कुर्सियाँ स्वयं की बचा लीं
किंतु देश के बुद्धिजीवियों
को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
 

मैं आज भी तरसता हूँ कि काश मेरा
हुनर मेरे देश के काम आता,
मैं एनआरआई नहीं,
सिर्फ एक हिंदुस्तानी कहलाता।
 

ऐ वतन छोड़कर तेरी दहलीज़ चैन से रह ना सका मैं,
जी तो लिया जीवन किंतु सुकून पा ना सका मैं,
तुझसे दूर होकर भी कभी तुझे भुला ना सका मैं,
मेरे सीने में हमेशा से ही सिर्फ तिरंगा ही लहराया।
 

दिल चाहता है मिट्टी को तेरी फिर छू पाऊँ मैं,
जीवन के अंतिम दिन भारत माँ की गोद में बिता पाऊँ मैं,
भारतीय हूँ, जिस मिट्टी में खेला था
उसी में दफ़न हो जाऊँ मैं।

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