हिंदी मेरी माँ  VIKAS UPAMANYU

हिंदी मेरी माँ

VIKAS UPAMANYU

हिंदी मेरी माँ बोली है,
उर्दू मेरी खाला है,
मिल जाती हैं दोनों,
कैसा साथ निराला है।
 

संस्कृत को कैसे भूल सकते हैं हम,
जो भरती सदैव संस्कारों का दम,
दे देती है सीख धर्म की,
मानवता का पाठ पढ़ाती है,
महत्व अलौकिक है जीवन में,
क्योंकि संस्कृत हमारी दादी है।
 

सहज सरल सुगम अनूठी है ये हिंदी,
यूँ तो बहुत हैं भाषाएँ मेरे देश में,
लेकिन सबसे प्यारी है माँ हिंदी,
हिंदी से बना हिन्दुस्तान,
जो है पहचान हमारी,
संस्कृत दादी ने बचा रखी,
आज भी संस्कृति हमारी।
 

हिंदी को पढ़ते हम,
हिंदी ही गुनगुनाते हैं,
लेकिन फिर भी न जाने क्यों,
अपनी माँ हिंदी को भूल जाते हैं।
 

उठो चलो प्रयास करें हम ‘उपमन्यु’,
हिंद के हिमालय पर करें सुशोभित,
जोत जलाएँ हिंदी की ऐसी,
देख शान हो जाए सब जग मोहित।

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