महफ़िल-ए-यार Rajender कुमार Chauhan
महफ़िल-ए-यार
Rajender कुमार Chauhanबात चलती है जब यारों की,
चर्चा कोई आम नहीं होता,
कुरेद़े जाते हैं ज़ख्म सारे,
किस्सा यूँ ही तमाम़ नहीं होता।
हम भी लिखते हैं शायरी तो,
बेशक़ हमारा नाम नहीं होता,
अलबत्ता ज़िक्र तो होता है कि -
हमारे बग़ैर कोई काम नहीं होता।
महफ़िल सूनी-सूनी सी लगती है,
जहाँ दारू का इन्तज़ाम नहीं होता,
ज़ोश भी कहाँ आता है यारों,
जब तक हाथ में जाम नहीं होता।
रात सुरमयी हो जाती है शराब़ से,
आग़ाज है ये तो अन्ज़ाम नहीं होता,
बेवज़ह इल्ज़ाम लगता है रिन्द़ पर,
यूँ अफवाहों से कोई बद़नाम नहीं होता।
चैन मिलता है अँगूर ए अर्क़ से,
सुकून-ए-द़वा का द़ाम नहीं होता,
बेहतर हैं पीकर चैन से जीने वाले,
मयख़ानों का रास्ता आम नहीं होता।
होता है अद़ब कायद़ा पीने पिलाने का,
बहाना कुछ चाहिए खुलेआम नहीं होता,
खुद़ ब खुद़ चले आते हैं द़ीवाने इसके,
इसके द़ावतनामें का कोई पैग़ाम नहीं होता।