सुन्दरतम  Rajender कुमार Chauhan

सुन्दरतम

Rajender कुमार Chauhan

सृष्टि का दृश्य विहंगम हो,
सुन्दर नहीं, सुन्दरतम हो!
 

नख से शिख, हर अँग-अँग,
ईश्वर की अदभुत रचना हो,
मेरे हृदय की श्वास-श्वास,
कवि मन की तुम तुलना हो।

सुन्दर नहीं, सुन्दरतम हो!
 

घनघोर घटा तुम्हारे हैं केश,
बलखाती नदी का भर के वेष,
बहती जाती हो मन विदेश,
टूटा संयम, बन्धन, परिवेश।

सुन्दर नहीं, सुन्दरतम हो!
 

नई-नई खिली, कच्ची कली,
कोमल स्वभाव तुम शीशा हो,
हृदय सपाट, अबोध हो तुम,
हाँ तुम! तुम ही मेरी मनीषा हो।

सुन्दर नहीं, सुन्दरतम हो!
 

शब्दों में अब उतर गई हो,
कविता बनके निखर गई हो,
पाठक पढ़ कर तुम्हें निहारे,
इतनी तुम सज सँवर गई हो।

सुन्दर नहीं, सुन्दरतम हो!
सृष्टि का दृश्य विहंगम हो!

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