वो अपना छूट गया  Pushpendra Singh Bhadauriya

वो अपना छूट गया

Pushpendra Singh Bhadauriya

बच्चे बूढ़े आमो खास,
सारा जग हुआ उदास,
धरती की प्यास से जो अबतक था बेख़बर,
उस बादल की आँखों से भी झरना फूट गया,
वो अपना छूट गया।
 

सड़कों पर उमड़ा जग,
फूल बिछ गए पग-पग,
इंसा से लेकर ईश्वर तक हर जुबान पर,
उनकी लिखी कविता और गीत गूँज गया,
वो अपना छूट गया।
 

धीरे-धीरे लेकर चलती बस,
तेज धूप भीड़ जस की तस,
एक दशक जिसको ना देखा ना सुना गया,
बिन बोले जाते-जाते लाख़ों दिल लूट गया,
वो अपना छूट गया।
 

रास्ता देख रही हैं भीगी आँखें,
गले लगाने को बढ़ती सूनी बाँहें,
लौट के फिर आएगा जो हमको छोड़ चला,
भारत माँ के मुकुट से इक मोती टूट गया,
वो अपना छूट गया।
 

घर पर परसी रखी है थाली,
हलवा पूरी उनकी पसंद वाली,
मानो लगता है अभी उठेगा खाना माँगेगा,
मगर मिठाई न देखकर वो बच्चा रूठ गया,
वो अपना छूट गया।

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