बस यूँही VIMAL KISHORE RANA
बस यूँही
VIMAL KISHORE RANAसरक जाती है इक बूंद सी,
पलकों के किनारे से, बस यूँही।
ठहर जाती है, दो पल को ही,
ज़िंदगी इक सितारे से, बस यूँही।
सिमट जाता है किसी दर्रा में,
किसी गमगीन फिज़ा में जो दिल कभी,
लहर जाती है हलचल सी,
इस तन्हा गलियारे में, बस यूँही।
यूँ तो इस दिल ने सपनों की बारिश में,
खुद को अक्सर भीगा किया।
यूँ तो महफिल में दिल ही दिल,
खुद का कुछ हिस्सा जिया।
सितारों की रोशनी में टिमटिमाया,
एहसासों को, जज़्बातों को।
यूँ तो पंछियों की चहक को,
मन ही मन गुनगुनाया, चहका किया।
पर लौट आया हर मर्तबा,
उस शामियाने से, महफिल-ए-तराने से, बस यूँही।
सरक जाती है इक बूंद सी,
पलकों के किनारे से, बस यूँही।
दिन के उजाले से जीना चाहा
अक्सर रोशनी को,
हर दिन के फसानें से चुराना चाहा
अक्सर दिशनगी को।
अक्सर बहना चाहा इस ज़िंदा नदी के,
किनारे-सहारे,
मंज़िल के बहाने से पीना चाहा,
अक्सर शरबत-ए-नमी को।
अधूरी इक प्यास लिए
सिमट आया दिल,
मंज़िल के मुहाने से, बस यूँही।
सरक जाती है इक बूंद सी,
पलकों के किनारे से, बस यूँही।
बहकर जिया, रुककर जिया,
पा कर जिया, खोकर जिया,
फिज़ा-ए-ज़िंदगी को किनारे से भी
और डुबोकर जिया।
इस दुनिया की रस्मों को
समझकर, निभाकर जिया।
इस दुनिया से अलग
सपनों की खुशबू को
ख्यालों में पिरोकर जिया।
तोहफा-ए-ज़िंदगी बख्शी है
उस रहमतगर-हमसफर ने अगर,
तोहफा-ए-ज़िंदगी को हर पल
हासिल करने को जिया।
फिर आया इक ख्याल, इक तराना,
गुनगुनाने से, बस यूँही।
सरक जाती है, इक बूंद सी,
पलकों के किनारे से, बस यूँही।
ठहर जाती है, दो पल को ही,
ज़िंदगी इक सितारे से, बस यूँही।
अपने विचार साझा करें
प्रस्तुत कविता को मैंने एक नज़्म का रूप देने की कोशिश की है। एक कलाकार के जज़्बात और दुनियादारी संभवतः आज दो अलग-अलग या कहें विपरीत बातें हैं। एक सच्चे कलाकार का दुनियादारी से इतर दुनिया में शामिल होने की मजबूरी, उसका अकेले में यह सोचना कि इतनी कोशिश के बाद भी मैं दुनियादारी में जज़्ब क्यों नहीं हो पा रहा हूँ। इस एहसास को ज़िंदा करने की जुर्रत पेश-ए-नज़र है।