एक मासूम शहादत  sachin rai

एक मासूम शहादत

sachin rai

क्या यह कसूर था मेरा जो इस मुल्क में आया,
या कसूर उस मज़हब का जिसने मुझे अपनाया,
शहीद तो हम पहले भी हुआ करते थे,
लेकिन तब शहादत में ग़म न था,
पर आज तूने जो कृत्य किया है,
रोने के लिए आँसू भी कम था।
 

मुझे ग़म न था इस तुच्छ शरीर का,
इसे तो मिट्टी में ही जाना था,
मगर तूने क्यों की वह गोदें सूनी,
जिनके लिए यह समां मौत का नज़राना था।
 

तू देख जरा उन हँसती आवाज़ों को,
जिसे इस मंदिर ने वर्षों से अपनाया,
आज तूने उस मंदिर को
पल भर में शमशान बनाया।
 

तू देख इस खूनी मंज़र को,
मंदिर की चीख़ती दीवारों को,
इंसान की तो बात ही नहीं,
ख़ुदा भी मंदिर न जायेगा,
रौशनी के पुंज जहाँ से निकलते थे,
वहाँ से अंधेरा भी न आएगा।
 

उस मंदिर का पूरा ख़ूनी समा
उस दर्द की दास्ताँ दोहराएगा,
तूने ख़ुदा के फरिश्तों का नहीं,
सीधे ख़ुदा का सँहार किया है,
उन जानों की सूरत देखर,
तुझे ख़ुदा भी माफ न कर पाएगा।
 

तू देख उन जनाजों को
जो शांत होकर लेटी हैं,
पास खड़ी उन उम्मीदों को
जो विवश होकर खड़ी हैं,
उन निर्जीव शख्सों के ख्यालों में
एक ही ध्वनि गूँज रही होगी,
कि जो भेजा था हँसते आवाज़ों को,
वो आज बेजुबाँ लाश बनकर आएँगी।
 

वो खून एक ही जवाब चाहता है,
कि क्या ये खामोश दरिंदे
कभी न जलाए जाएँगे,
या हम उम्मींदों के
ऐसे ही जनाज़े निकाले जाएँगे।
 

बस अंत में कहना चाहूँगा,
सलाम है उन सूनी गोदों को
जिनके ऐसे बड़े त्याग से
एक ऐसी क्रांति आएगी,
की पूरे इस विश्व से
दहशत की जनाज़े जाएँगी,
हम और आप फिर न मिलेंगे
लेकिन आप हौसला बुलंद रखना,
क्योंकि आप की सतत दुआओं से ही
हम सैंकड़ो की शहादत काम आएँगी।

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