वो एक दिन SHUBHAM DWIVEDI
वो एक दिन
SHUBHAM DWIVEDIमेरी सत्तर की आखों में
वो सत्ताईस की दिखती है,
मगर मैं तीस का था,
वो सत्ताईस की थी जब तो
इसी कमरे की उस स्टूल पर
बैठी हुई हर रोज़ वो
मुझको जगाती चूड़यों की खनखनाहट से,
उसकी पाज़ेब सुनकर,
सूंघकर मैं इत्र उसका वो,
उसे पाकर मैं,
पाकर प्रेम उसका वो
खुदा का और अपने भाग्य का
बखान करता था।
आज भी बन्द आँखों से
वहीं दिखती है मुझको वो,
उसी स्टूल पर बैठी हुई,
और जब खोलता हूँ आँख तो
मैं आईने में हूँ
मगर वो है नहीं।
कभी हूँ सोचता कि आईने पर की घड़ी
उलटी चलेगी,
यहीं लेटा हुआ मैं लौट जाऊँगा वहाँ पर,
रुकेगा वक्त वो बैठी रहेगी,
मैं उसको रोक कर जाने नहीं दूँगा,
वो अपना आईना देखेगी, मैं उसको निहारूँगा।
मगर होता कहाँ है वो
जो हरदम चाहते हैं हम,
चली जाएगी बाहर वो
न फिर से लौटने को,
एक दिन।
यहाँ लेटा हुआ
सोचूंगा मैं
हर एक दिन,
मैं काश वो दिन रोक लेता।