प्रेम-पाती  vaishali Jain

प्रेम-पाती

vaishali Jain

सहती है विरह वेदना
सूनी बाँहें आलिंगन को तुम्हारे,
भर जाती हैं अगन से,
कटती है रातें
जब यादों के सहारे।
 

एक दरिया सी चाहत,
एक समंदर भरा प्यार,
चाहती है प्रतिपल
बस तुम्हारा ही दीदार।
 

आते हो तुम भी
मचाते हुए शोर,
और बुझाते हो प्यास
मरू भूमि की
देखकर उसकी ओर।
 

बरसती है बूँदें
फिर निश्छल प्यार की,
उमस फिर भी रह जाती है
दामन में यार की।
 

समझती हूँ मैं भी
तुम्हारे प्रेम की सहजता,
उसमें बसी तुम्हारी महक
और फूलों सी कोमलता।
 

पर उस ठंडी हवा के झोंके को
मैं आज भी नहीं समझ पाती,
जो बहता है मंद-मंद
पढ़ते हुए तुम्हारी प्रेम-पाती।
 

कर देता है विवश
मुझे खिड़की पर आने को,
देकर तुम्हारी यादों का वास्ता
मुझे खुद में खो जाने को।
 

शायद उस एहसास को
ताज़ा करने के लिए,
जब तुम मेरे पास
मेरे कानों में
कुछ गुनगुनाने के लिए आते थे,
और सारे बाल
तुम्हें करीब आता देख
खुद ही पीछे सिमट जाते थे।
 

तुम आते थे
छुपाकर चाँद खुद में,
ताकि पढ़ न सके कोई
उस इबारत को,
लिखते थे तुम जो
घनघोर अँधियारे में,
पढ़ने जिसको
तड़पता था शीशा,
ग़ुस्साता सा
उस सूरज पर,
जो निकलता था अलसाया सा।

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