प्रेम की शक्ति  SUBRATA SENGUPTA

प्रेम की शक्ति

SUBRATA SENGUPTA

हिरणी जैसी आँखें,
हंसिनी जैसी चाल,
सुआ की तरह नाक तुम्हारी,
और गुलाब की तरह गाल।
 

आँखों में आँखें डालकर
बातें करती रहती हो,
पर ज़ुबान पर ताला लगाकर,
कुंजी ढूढ़ती रहती हो।
 

गुलाबी होठों से
मंद-मंद मुस्कान बिखेरती हो,
मोती जैसी दाँतों से,
मेरे हृदय को तार-तार करती हो।
 

हृदय द्वार खोलकर
जब मैं बहार निहारता हूँ,
तुम्हारे लबे-लम्बे केशों में
तुम्हें उँगलियाँ सहलाते देखता हूँ।
तुम उगते सूरज की लालिमा हो
और सरोवर में खिला कमल हो,
भोर की शीतल पवन का झोंका
और ज्योत्स्ना के शशि हो।
 

तुम साधना और
मैं तुम्हारा साधक हूँ,
तुम प्रेम की देवी
और मैं तुम्हारा पुजारी हूँ।
 

तुम मेरी आराध्या
और मैं आराधना हूँ,
दिवानिशि तुम्हारी आराधना से,
इस संसार से बेखबर हूँ,
तन्मय होकर तुम्हारी नाम की
माला निरंतर फेरते रहता हूँ।
 

मेरी आँखें निरंतर तुम्हारी
दर्शनाभिलाषी हैं,
मेरी पूजा के प्रेम सुमन
अविरत तुम्हें अर्पित हैं।
 

प्रेम वासना नहीं, पूजा है,
जो दो हृदयों का संगम है,
प्रेम स्वयं रोकर
औरों को हसना सिखाता है।
 

प्रेम वह पुष्प है जो निःस्वार्थ
सौरभ और अमृत बाँटता है,
और स्वयं निः श्व होकर भी
औरों को एक सूत्र में बाँधने की
क्षमता रखता है।

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