चलते-चलते सोच रही हूँ Vrushali Sarwate
चलते-चलते सोच रही हूँ
Vrushali Sarwateचलते-चलते सोच रही हूँ
बात करूं फिर बचपन से,
धीरे से मैं आँख मूंदकर
देखूँ सपने चंचल से।
खेलूँ फिर उसी बगिया में
जहाँ रहते थे कई परिंदे,
खिलने दूँ उन फूलों को
जो लगते थे सबसे अच्छे।
छू लूँ उन निर्मल प्रथम किरणों को
जो पहुँचे मेरे आंगन में,
हो के मदमस्त दौड़ चलूँ मैं,
मस्त शिखरों के आँचल में।
चाहूँ समेट लूँ इन्द्रधनुष को
अपने सुनहरे दामन में,
और खोल दूँ पिंजर अनगिनत
उन निरीह परिंदों के।
चलते-चलते सोच रही हूँ
बात करूं फिर बचपन से,
धीरे से मैं आँख मूंदकर
देखूँ सपने चंचल से।