गृहनगर के प्रति  Ashutosh Aman

गृहनगर के प्रति

Ashutosh Aman

मेरा गृहनगर हिम-नग का अलौकिक-सा सरोरुह सर,
वहाँ पर नील-कमलों-सा सुभर, सुंदर-सा मेरा घर!
वो पावन धाम है मेरा, वो सोना है, वो पारस है,
वहाँ माँ-बाप हैं मेरे, वहीं मेरा बनारस है।
 

वहाँ गंगा नहीं बहती मगर बहती है दामोदर,
वो दामोदर कि जिसने क्षीर निज उर का पिलाया है;
वो जिसने नग का कंधा तोड़ अपना मार्ग बनाया है;
असीमित जिसकी गहराई, किसी ने थाह न पाई,
जो अवनत हो पठारों से मही को सींचने आई--
वही भागीरथी मेरी, वही पालिता-माता है,
वहाँ प्रति-बूँद पय, प्रति-धार में बहता सुधा-रस है।
 

मेरे घर के बगल में ही बड़ा सा एक पोखर है,
मलिन है जल जरा उसका मगर श्यामल किनारा है;
वहाँ पर बैठकर कई बार पैरों को पखारा है;
उधर दल-दली झाड़ी है, बड़ा सुंदर नज़ारा है;
आगे रेल लाइन है, मनोहर दृश्य सारा है।
वहाँ पर पानी पीने कई जन्तु-जीव आते हैं:
वो देखो हंस बैठा है वो देखो उड़ा सारस है!
 

हमारे राज्य आओगे तो पारसनाथ जाना तुम,
बहुत ऊँची पहाड़ी है, वहाँ पर जैन-मंदिर है;
वहाँ निर्वाण पा इति-गति गए बीसों तीर्थंकर हैं;
विलक्षण योग दिखते हैं, दिगम्बर लोग दिखते हैं,
वहाँ से उतरने के बाद कई दिन पैर दुखते हैं;
वहाँ के जानवर भी जैनियों की तरह जीते हैं;
वहाँ तम-हन्त दर्शन है, वहाँ सबकुछ उजारस है।
 

यहीं पर देव नगरी है, यहीं पर वैद्य बाबा हैं,
असुर-नृप वह जो तीनों लोक में डंका बजता था--
उठा कैलाश से शिवलिंग लिए लंका को जाता था-
यहीं भू पर धरा था फिर हिला पाया न दोबारा,
वो यम को जीतने वाला यहाँ शिवजी से था हारा।
हैं ज्योतिर्लिंग बन पैठे यहाँ चिर-काल से शम्भू;
न हस्ती चल सकी उसकी भी जिसके शीश दस-दस हैं।

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