इरादा (मुक्तक)  BRIJ BHUSHAN YADAV

इरादा (मुक्तक)

BRIJ BHUSHAN YADAV

था तेरा इरादा जो मिल कर बिछड़ जाने को
फिर मिलाएँ ही क्यों मेरे साँस से साँस को,
जुस्तजू थी किसी और की जो तेरे ख़्वाब को
फ़िर सँजोए ही क्यों मेरे स्वप्न में ख्वाब को।
 

सुना है घर-आंगन मेरा, सूना है द्वार तेरा,
करके सब सूना-सूना रब्बा फिर कैसा ये सवेरा।
ना रुत ना सावन आया, मिट गया सारस तेरा,
सुनसान इस रहगुज़र में बिन हमराही कैसा रैन बसेरा।
 

बीच सफ़र ना गए मधुशाला प्रियतम तुम जो अगर,
फिर अबतक थे हमराही अब क्यों बे मंजिल हुए,
थे हम ही तेरे दिल का आशना जो अगर,
फ़िर तुम्हारी ये नज़र क्यों हमदिल के कातिल हुए।

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