कसक RAHUL Chaudhary
कसक
RAHUL Chaudharyफिर शुरू हो रही
जाने चुभन रूह को,
मखमली हवा ये क्यों
सिहर रही धूप को।
उँगलियाँ उलझने की
है याद उन ज़ुल्फो में,
पात से पात बता रही
है अटक दरख्तों पे।
सूख से गए सारे
पात के ढेर में,
छेड़ कर मुस्कान
लिपट आए बाहों में।
याद उस घड़ी की
ये हवा फिर ला रही,
खुशबुएँ जानी पहचानी
किस ओर से आ रहीं।
एहसास तेरे होने का
अब भी पास कहीं,
इंतज़ार उस छोर का
राह की तेरे वही।
महक सी फिर कसक
है उठी फिर वही,
रूह ने सुना दस्तक
पास है तू यहीं कहीं।
खींचती है छुअन तेरी
इन फैले बिखरे पत्तो में,
एहसास है लिपटी तेरी
इन दरख़्तों की ओट में।