ढूँढ़ रहा है मन अकुन्चित Arun Mishra
ढूँढ़ रहा है मन अकुन्चित
Arun Mishraढूँढ़ रहा है मन अकुन्चित
राह तेरी तक रहा है!!
दर्शनों को है ये व्याकुल
नेत्र क्यों यूँ थक रहा है,
आस है तेरी यूँ ऐसे
जैसे कृषि को पानी की,
मौन है या डर चुका है
वियोग मन के वाणी से!!
अब नहीं मुझमे अतीत
माफी दे दे कर्मों की,
मन बिलखता व्याकुल है
तेरे बिन दुर्गम अविकसित!!
छोड़ हठ अब चली आ
सर झुका वन्दन करूँ मैं,
देह का अभिवादन सुन
दौड़कर मुझमे समा जा!!
प्यार का अनुक्रम बना दे
नैनों से संवाद कर,
देह तेरा रूह मेरी
यूँ ज़रा आभास कर,
गौड़ सा संबंध बना
प्यार का अहसास कर!!
ढूँढ़ रहा है मन अकुन्चित
राह तेरी तक रहा है!!