आक्रोश Pallavi Bhojraj Kowale
आक्रोश
Pallavi Bhojraj Kowaleजब जल उठती वो अग्नि दहन की,
परंपरा वो आक्रोश की,
चिंगारी जो राख करती
उठती हुई हर चीख की।
जब सवाल उठे मनुष्यता पर,
साधना बताई वो मोक्ष की,
भ्रष्ट और दुष्ट इस नीतिमत्ता को,
कोई अर्थ न बता पाए पूजनीय अग्नि की।
वो कल था जब स्त्री सती होती अग्नि में,
एक चिंगारी आज भी है जो राख हो रही जलने से पहले,
एक कराह आज भी है जो जार-जार हो रही हैवानियत के तले,
वो चीरता हुआ आक्रोश आज भी है जो सहम जा रहा खिलने से पहले।