जीने की चाह  Pallavi Bhojraj Kowale

जीने की चाह

Pallavi Bhojraj Kowale

उस बचपन को वो याद क्या करें
उन लम्हों को समेटने की कोशिश क्या करें,
जब उड़ने के लिए पर ही न हों
तो उड़ने की उम्मीद में वक्त जाया क्यों करें।
 

बर्दाश्त की हद को महसूस जो उसे करना था,
खुद की तस्वीर को मिटाते हुए
एक अश्क वहा भी तो गिराना था,
पर मिट जाए न कहीं हस्ती खुद की,
इस डर से ऊँचाई छूने की गुंजाईश को मिटाना तो न था।
 

प्यार भरे उस आँचल से बहार निकल कर
चुभ जाए जो लम्हें उनकी यादों को साथ लेकर,
अकेले ही सही
पर सफ़र को तय तो करना था।
 

खुद की कमियों के साथ जिनकी आदत सी होने लगी,
हँस उठता कोई जब उसकी एक झलक पर
उस हँसी से भी
जैसे मोहब्बत सी होने लगी।
 

जब कभी महसूस होती थी दोस्तों की अहमियत,
गुम होती गई उसकी भी मासूमियत,
फिर पूछता गया सवाल खुदसे ही,
कहाँ मिली है किसी की दोस्ती में शरीक होने की इजाज़त।
 

नाज़ करता गया खुद की ही कमियों पर,
कुछ बातों का इलाज जो न था,
थक गया फरियाद करते-करते,
इस नाचीज़ की मुराद को पूरा कहाँ होना था।
 

एक सपने को पाने की चाह ने क्या-क्या न सिखाया,
चुना था ऊँचाई को और क्या बना के रख दिया,
भले ही भटका हो कई बार रास्ता,
पाना था जिसे उस मंजिल को तो पा लिया।

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