पत्ते की छाँव - माँ की व्यथा सत्येंद्र चौधरी "सत्या"
पत्ते की छाँव - माँ की व्यथा
सत्येंद्र चौधरी "सत्या"तम हरण जब हो निशा का
पूर्व में प्रकाश हो,
रति मनोहर घाटियों में
यौवन सा मधुमास हो।
चिड़ियों की चहचहाहट
मद्धिम सुगन्धित सी हवा,
पत्तियों की सरसराहट
कर देती हर दिल को जवां।
पर नियति ने खेल कैसा
है दुःखद जो घटा दिया,
नभचरों का आशियाना
मानवों से कटा दिया।
तपती दोपहरी रश्मियों की
और शक्ति बढ़ गई,
अपने बच्चे के गमन पर
माँ की छाती फट गई।
शेष दो शिशुओं के ख़ातिर
उसने साहस को जुटाया,
चोंच में एक पत्र लेकर
छत्र बच्चों पर चढ़ाया।
मातृशक्ति कालगति से
फिर से आगे बढ़ गई,
एक पत्ते के सहारे
सूर्य से भी लड़ गई।
सावधान! अब रोक मनुज
कितना विध्वंस मचाएगा,
श्रृंगार उजाड़ के वसुधा का
अन्यत्र कहाँ अब जाएगा,
तुझे कौन छत्र दे पाएगा।