क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया  Roshan Barnwal

क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया

Roshan Barnwal

जब सीखा था चलना गिर कर, जाना था हँसना रो कर,
याद है अब तक वो चहचहाहट आँगन की,
भूलती नहीं वो यादें माँ के दमन की,
भागती हुई ज़िन्दगी में सब पीछे छोड़ दिया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

दौड़ा था पतंगों के साथ उड़ने को,
अपनी खुशियों के हाथों से आसमां को छूने को,
सोचा था तैरूंगा उन खुली हवाओं के साथ,
उठाता रहूँगा उस चाँद की ओर उम्मीदों के हाथ,
अचानक किसी झटके ने मेरी डोर को ही तोड़ दिया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

चल पड़ा अब मैं वापस इस जमीं पर ही,
सोचा चलो उड़ न सका तो भागना ही सही,
रहें देखे मंजिल देखी और रस्ते के काँटों को भी देखा,
उस पर चलते गिरते और उठते लोगों को भी देखा,
देख कर ऐसी दुनिया मैं थम सा गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

डरा सहमा सा मैं रहने लगा,
ईश्वर से चमत्कार की भीख माँगने लगा,
भूलता गया अपनी मंजिल की चाहतों
और ज़िन्दगी की खुशियों को,
पुरानी यादों और बीते पलों में भटकने लगा,
राहों पे गिरने के डर से मैं सिसकता गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

गया मैं उन गिर कर उठते लोगों के पास,
पूछा उनकी इस जिद का राज़,
क्यों थमे हो ऐसी राहों के बीच,
बदलते क्यों नहीं अपनी मंजिल तक जाने की रीत,
देख कर उनकी आँखें मैं झेंप सा गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

बोले वो पर किए हैं कंटक गिरना गलत नहीं,
थमे हैं काँटों पर चलने के लिए यहाँ रुकना भी गलत नहीं,
बढ़ो आगे, करो संघर्ष,
ईश्वर है तुम्हारे साथ इस बात का भी करो तुम हर्ष,
सुनकर उनकी बातें मैं उठ खड़ा हुआ,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

बढ़ने लगा मैं अपनी मंजिल की ओर
और साथ में पकड़ा था साहस की डोर,
कांटे चुभें, पर दर्द हुआ ही नहीं,
मंज़िल के आगे लहू दिखा ही नहीं,
आगे बढ़ने की जिद में मैं दौड़ता ही गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

दिखी मंजिल तो उछल पड़ा,
ख़ुशी के मारे अँधा सा हो गया,
टकरा गया उन दीवारों से
जो थी मेरी मंजिल के आगे,
चीख पड़ा गिर कर, फिर मेरे सारे संवेद जागे,
इसके बाद वहीं जड़ सा गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

याद आया फिर क्या भूला मैं,
जिन्हें पार करना था उन काँटों पर झूला मैं,
क्यों टकराया मैं उस दिवार से,
क्यों नहीं पार किया उसे भी प्यार से,
सोच कर ये सब मैं सिहर गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

एक अनजान हाथ ने उठाया मुझे,
इस कमजोरी को ताकत बताया मुझे,
गिरना गलती नहीं तुम्हारी, पर यूँ रुक जाना सही नहीं,
अजीब जादू से भरे कुछ लफ्ज उसने सुनाए मुझे,
पकड़ उंगली उसकी मैं उठा खड़ा हुआ,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

पार कर कठिनाइयों को, आखिर पहुँच गया मैं अपनी मंज़िल तक,
देखे थे जो ख्वाब, तय किया उनका सफर हकीकत तक,
पर ये क्या! ये मंज़िल तो छोटी हो गयी मेरी हसरतों के आगे,
और नयी मंज़िल आ गई मेरी आखिरी नज़रों तक,
समझ कर इस खेल को मैं फिर आगे बढ़ता गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।
 

नहीं है कोई अंत सफलता का, कोई छोर नहीं मेरी क्षमता का,
मैं चाहूँ तो कुछ भी कर सकता हूँ,
इस दुनिया का कुछ भी बदल सकता हूँ,
बार-बार गिर कर उठने के बाद ये राज़ मैं जान गया,
क्योंकि अब तो वक़्त ही बदल गया।

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