तांडव कर दो Vivek Tariyal
तांडव कर दो
Vivek Tariyalमहारुद्र हे अविनाशी, इस जग पर थोड़ी कृपा करो,
थक गई धरा भी बोझ उठा, उसके कन्धों का भार हरो।
समय आ गया है अब, क्षण भर में दुष्ट दमन कर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
मानवता की अंतिम साँसें करती हैं तुम्हारा आवाह्न,
हे प्रलयंकारी महादेव है तुम्हे ह्रदय से अभिवादन।
हों प्रस्फुटित नव अंकुर, इस धरती में जीवन भर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
संस्कारों की जल रही चिता, चौराहे इज़्ज़त लुटती है,
हवस नर मन पर छाई है, नारी कोने में घुटती है।
कृपा करो हे दयानिधान, तुम आकर यह संकट हर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
लालच का मन पर मैल चढ़ा, सत्य रौशनी खोज रहा,
भुला बैठे सब नैतिकता, मूल्यों का अब ना मोल रहा।
सभ्यता पतन की ओर चली, तुम उन्नति पथ इंगित कर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
ईर्ष्या हर मन पर छाई है, द्वेष ह्रदय में पलता है,
अधरों पर मुस्कान है किन्तु, डाह में हर मन जलता है।
अपने डमरू के नाद स्वरों से, सबका मन निर्मल कर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
प्रेम की वाणी भूल गए सब, क्रोध की अग्नि भड़की है,
भस्म हो रहा प्यार धरा पर, ज्वालाएँ ऊँची उठती हैं।
जटाजूट की गंगधार से, वात्सल्य वृष्टि जग में कर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
ढोंग धरा पर फैल रहा, भावनाओं को लूटा जाता है,
लेकर तुम्हारा नाम यहाँ, पाखंडी पूजा जाता है।
अपने त्रिशूल के स्पर्श मात्र से, इन दुष्टों का मर्दन कर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
हे आदिनाथ, हे महाकाल, अब तो ध्यान से जागो तुम,
धरती क्रंदन की सुन पुकार, आकर उसे बचा लो तुम।
नर्तन के स्पंदन से तुम, जग का नवल सृजन कर दो,
आँख तीसरी खोलो तुम, फिर सृष्टि सृजन तांडव कर दो।
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जब-जब हम सामाजिक विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि आधुनिक समाज पिछले समय की अपेक्षा और ख़राब होता जा रहा है। संस्कारों को मरता देख, लोभ मोह में पड़कर नैतिकता का पतन होते देख एवं भ्रष्टाचार और पाखंड के फलते फूलते साम्राज्य को देख कवि का मन महारुद्र शिव का आवाह्न करता है एवं उनसे प्रार्थना करता है कि एक बार फिर अपने तांडव से सृष्टि का नवल सृजन करें।