शिकस्त  Ravi Panwar

शिकस्त

Ravi Panwar

न साथ कोई कि ज़िन्दगी ये आम हो गई,
ढल गया था दिन कि जैसे शाम हो गई।
 

उलझे हुए थे धागे सब, मैं भी उलझ गया,
सुलझाने की सभी कोशिशें नाकाम हो गईं।
 

किससे करूँ गिला, कोई नहीं मिला,
ढूँढ़ते हुए ये उम्र तमाम हो गई।
 

मुझको शिफ़ा दे रब मेरे जिल्लतों की कैद से,
नज़रें मेरी, मेरी नज़रों में बदनाम हो गईं।
 

कुरेद कर कितनी दफ़ा यूँ चले जाते हैं वो,
दुश्मनी जिनके लिए ईनाम हो गई।
 

उम्र आ पहुँची मेरी, बेखौफ उस दरवाज़े पर,
जहाँ ख्वाहिशें जलकर सभी शमशान हो गईं।
 

ख़त्म हो जाती शिकायत, और ठहर जाता हूँ मैं,
सब्र मेरा देखकर वो हैरान हो गई।
 

और, ये मुस्कुराने का हुनर किससे सीखा है "रवि"
छिप गई जाने किधर गुमनाम हो गई।

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