व्यथा  Roshan Barnwal

व्यथा

Roshan Barnwal

खाली आँखें सपने बुनतीं,
उन सपनों को सोचा करतीं,
बैठ विचारें, साँझ निहारें,
उत्सुकता से ढूँढा करतीं।
 

चंद्र चाँदनी देखा करतीं,
कल्प स्वप्न अक्सर ये रचतीं,
प्रश्न बनाएँ हल भी सुझाएँ,
व्याकुलता से क्यों ये डरतीं।
 

संबंधों को प्रकांड हैं बनातीं ,
उचित निर्णय चयन तक करतीं,
घटा बुलाएँ अश्रु बहाएँ,
अंत निद्र का अंकुर जनतीं।
 

चित्र हिय भीतर तक गढतीं,
शोक ज्वाला के मध्य ये तपतीं,
तम के द्वारे आस लगाए,
खाली आँखे व्यर्थ तरसतीं।

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