अपनी मंज़िल अपनी राह थी  B Seshadri "Anand"

अपनी मंज़िल अपनी राह थी

B Seshadri "Anand"

ना भगवान बनने की होड़,
ना भक्त बनने की चाह थी,
चापलूसों से दूर कहीं,
अपनी मंज़िल अपनी राह थी।
 

छलक रहे थे आँसू,
जल रही बस्ती पनाह थी,
सब समझ रहे थे दो बूँद,
पर ए दरिया अथाह थी।
 

मुस्कुरा रही थी राजनीत,
इन्सानियत के होंठों पर क़राह थी,
कुचली हुई मोहाब्बत भाईचारा,
हर गली हर नुक्कड़ पर नफरत बेपनाह थी।
 

कहाँ से कहाँ पहुँचे हैं हम,
हमारी ज़मीर क्या इतनी बेपरवाह थी,
क्या यही थी हमारी मंज़िल,
क्या यही अपने बड़ों की सलाह थी।

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