हिय संग्राम Roshan Barnwal
हिय संग्राम
Roshan Barnwalमन युद्ध से विराम चाहूँ,
पतझड़ से आराम चाहूँ,
संघर्ष का मैं ही हूँ कारण,
इस अंध पथ का मुकाम चाहूँ।
हर भोर हिय को सज्ज करूँ,
व्यर्थ निरर्थक काज करूँ,
अश्रु जैसे भाग्य हैं मेरे,
स्वदमन का विचार करूँ।
तीव्र विचलित लक्ष्य क्यूँ,
हर पाठ ही रहस्य क्यूँ,
विपदा निरंतर आएगी,
इस कर्म का फिर कष्ट क्यूँ।
मैं ताप में जलने लगा,
संग्राम में लड़ने लगा,
लक्ष्य है कितना भी दुर्गम,
निशंक मैं बढ़ने लगा।
कुरुक्षेत्र सम है ये जीवन,
पर कृष्ण अर्जुन आपस में दुर्जन,
तो दिव्य रश्मि का कैसा विचार,
स्वयं क्यूँ बन जाऊँ मैं मोहन।