मंज़िल NIKITA SINGH
मंज़िल
NIKITA SINGHमंज़िल कहाँ थी
और मैं कहाँ चला गया,
इतनी बड़ी भीड़ में न जाने
मैं कहाँ खो गया।
अपनों के लिए निकला था
अपनों को ही खो कर बैठा हूँ,
एक कागज़ के टुकड़े के लिए
अपना सब कुछ गँवा के बैठा हूँ।
पैसे के पीछे-पीछे न जाने मैंने
कब अपनों को खो दिया,
सब कुछ पाकर भी न जाने
कब मैंने अपना सब कुछ खो दिया,
न जाने कब मैंने अपना सब कुछ खो दिया।