रोज़ की तरह Ravi Panwar
रोज़ की तरह
Ravi Panwarरोज़ की तरह,
न जाने कहाँ से, आ जाती है
मेरे मन पर,
मन के दरवाज़े पर, सुबह सुबह
अखबार की तरह,
नाश्ते में अचार की तरह,
गीले बालों की सिलहन सा भिगोकर,
मेरे जीवन में खुद को पिरोकर,
फिर आ पहुँची है,
रोज़ की तरह।
मेरी लाठी सा लड़खड़ाती है,
फ़टे कम्बल में कँपकँपाती है,
हसती है, चिढ़ाती है मुझको,
मेरा हाल पूछकर,
मैं भी खांस देता हूँ कहते-कहते,
देखो यूँ न सवाल करो,
उम्र दोनों को आई है, "बेगम"
कुछ तो ख्याल करो,
हज़ार सलवटें लिए चेहरे पर,
फिर पूछती है मुझसे,
मैं कैसी दिख रही हूँ,
और मैं भी तेरी तारीफों की अलमारी से,
चुरा लाता हूँ एक शब्द
"माशाल्लाह",
रोज की तरह।
पर ये सर्दियों की धुंध,
कम्भख्त,
छिपा देती हैं
बना देती हैं,
धुंधला मेरे टूटे हुए चश्मे को,
और मैं देख नहीं पाता,
कर नहीं पाता,
बातें तेरी तस्वीर से,
रोज़ की तरह।