बदलता इंसान  Vinay Kumar Kushwaha

बदलता इंसान

Vinay Kumar Kushwaha

इंसान अब वो इंसान न रहा,
हर तरफ फ़रेब है ईमान न रहा।
जी रहा है इंसान खुदगर्ज होकर इतना,
रिश्तों की बुनियाद को है एक दिन मिटना।
कुछ बचे रिश्ते तो हैं मगर उसमें जान न रहा,
इंसान अब वो इंसान न रहा।
 

अर्थ पिशाच समाज में लूट मची है चहुँ ओर,
दौलत की मैराथन में खूब लगी है होड़।
शरीफ़ों का जीना अब आसान न रहा,
इंसान अब वो इंसान न रहा।
 

छल, कपट, ईर्ष्या ने हृदय में घर बना लिया है,
सबने दौलत को ही हमसफ़र बना लिया है।
भले और बुरे का अब पहचान न रहा,
इंसान अब वो इंसान न रहा।
 

खून ही खून का खून कर रहा है,
स्वर्ग सी धरती का सुकून चर रहा है।
लोगों के लबों पर 'विश्वासी' मुस्कान न रहा,
इंसान अब वो इंसान न रहा।

अपने विचार साझा करें




0
ने पसंद किया
1318
बार देखा गया

पसंद करें

  परिचय

"मातृभाषा", हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लघु प्रयास है। "फॉर टुमारो ग्रुप ऑफ़ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग" द्वारा पोषित "मातृभाषा" वेबसाइट एक अव्यवसायिक वेबसाइट है। "मातृभाषा" प्रतिभासम्पन्न बाल साहित्यकारों के लिए एक खुला मंच है जहां वो अपनी साहित्यिक प्रतिभा को सुलभता से मुखर कर सकते हैं।

  Contact Us
  Registered Office

47/202 Ballupur Chowk, GMS Road
Dehradun Uttarakhand, India - 248001.

Tel : + (91) - 8881813408
Mail : info[at]maatribhasha[dot]com