कश्मीर-सूर्यकिरण की पहली चादर  Shubham Kumar

कश्मीर-सूर्यकिरण की पहली चादर

Shubham Kumar

धरती पे जन्नत का मंजर, वासुदेव की गीता थी,
भारत की यह राम के जैसे, बिछड़ी हुई सीता थी।
सूर्यकिरण की पहली चादर, फूलों की खुबसूरती भी,
झीलों की ये रिमझिम ध्वनियाँ, जैसे कोई कविता थी।
 

पर गायब हुई सुंदरता सारी, लहू बह रहा नालों में,
'स्वर्गभूमि' अब 'समरभूमि' है, पिछले सत्तर सालों में।
इस चादर पर पैंतीस दागें, फूलों की मुर्झाहट भी,
झीलें भी रो रही बैठकर, सूखेपन के हालों में।
 

ढोया इन पीड़ाओं को अब, इन युद्धों को कब तक ढोएँ,
बच्चे, महिला, पुरूष, सिपाही, न जाने हम कितने खोएँ।
हम भी सोए तुम भी सोए, दिल्ली और दरबार थे सोए,
डमरू वाले की धरती पर, कितने और कबसे हैं रोए।
 

इंतज़ार था हुआ बहुत अब और नही रुक पाएँगे,
शिवशंकर की धरती को, इस वतन का मुकुट बनाएँगे,
फिर से विश्व पटल पर हम, बन जगद्गुरु छा जाएँगे।

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