मन का मीत Vinay Kumar Kushwaha
मन का मीत
Vinay Kumar Kushwahaगुनगुनाऊँ मैं जो हर पल
मिला न ढंग का गीत कहीं,
संग-संग चलूँ मैं हरदम उसके
मिला न मन का मीत कहीं।
डगर-डगर हर नगर में जाऊँ
कहीं नहीं उसे पाता हूँ,
चाहे जितना दूर मैं निकलूँ
लौटकर वहीं आ जाता हूँ।
हारा तो नहीं हूँ कभी
मिला न दम का जीत कहीं,
संग-संग चलूँ मैं हरदम उसके
मिला न मन का मीत कहीं।
है संसार ये बहुत बड़ा
भाँति-भाँति के लोग हैं मिलते,
खिलते हैं हर बाग़ यहाँ
पर दिल के बाग़ सदा न खिलते।
धर्म,आस्था सब कुछ निभाऊँ
मिला न पावन रीत कहीं,
संग-संग चलूँ मैं हरदम उसके
मिला न मन का मीत कहीं।
घट रहा विश्वास प्रतिदिन
महल झूठ का अब है खड़ा,
टूट रहा हर आस यूँ पल-पल
अब विपदा है बहुत बड़ा।
करते हैं सब छल 'विश्वासी'
मिला न सच्चा प्रीत कहीं,
संग-संग चलूँ मैं हरदम उसके
मिला न मन का मीत कहीं।