मुक्तक - 2  Ashish Singh

मुक्तक - 2

Ashish Singh

हवाओं में, फिज़ाओं में मैं फूलों में महकता हूँ,
सुबह की धूप मे भी मैं पंछी बन चहकता हूँ,
मगर छल से भरी दुनिया में कितने गम मैं सहता हूँ,
मोहब्बत नाम है मेरा मैं हर एक दिल में रहता हूँ।
 

बहुत इतरा रहे थे तुम इश्क़ करना नहीं आया,
जुदाई सह लिया मैंने मगर मरना नहीं आया,
बहुत रोया, बहुत तड़पा, जहर पीना नहीं आया,
तुम्हारे पास था सबकुछ मगर जीना नहीं आया।
 

जो अपनी अनकही बातों को तुमसे कह अगर पाते,
यकीं है ये हमें कि तुम बदल तो यूँ नहीं जाते,
शुकर है बेवफा थे तुम नहीं यूँ जी नहीं पाते,
हमारे हो गए होते तो हम ज़िंदा ही मर जाते।
 

जो करदे जिस्म के टुकड़े उसे तलवार कहते हैं,
भरे हर जख्म जो मरहम उसे ही प्यार कहते हैं,
शहर के हर गली मे अब मोहब्बत के फ़साने हैं,
बयाँ नज़रों से करदे जो उसे दिलदार कहते हैं।
 

जो ग़र तुम ना मिले होते तो हम कुछ कर गए होते,
यक़ीनन राह की कठिनाईयों से डर गए होते,
ये तोहफ़ा जिंदगी का ऐ खुदा कैसे मुबारक़ हो,
विरह में यार के जीने से बेहतर मर गए होते।
 

पिता वो ख्वाब है जिसको नयन पट खोल कर देखो,
वो देगा हर ख़ुशी तुमको जरा तुम बोल कर देखो,
कहावत सुन रखे हो जो, वो झूठी है नहीं यारों,
दिखेगा राम उसमें, तुम कपट छल छोड़ कर देखो।

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