औकात Aman Pandey
औकात
Aman Pandeyसीखा था शिक्षा से, ज्ञान का साथ में रहना,
सिखा दिया ज्ञान ने, ना किसी के पास में रहना।
चलो किया सब्र कि ज़िंदगी है, संवरेगी कभी तब होगा सब,
कि अब तो सिखा दिया ज़िंदगी ने ही अपने औकात में रहना।
कौन है दोषी इन सब में?
उम्मीद, ममता या भरोसा!
सफलता के रस्ते पे तो मैं भी था,
पर एक ठोकर पे सबने मुझे कोसा!
क्या मेहनत का रंग अव्वल अंको में ही दिखता है?
क्या कला की कोई क़द्र नहीं
जो खुदा से सबको मिलता है!
तो अब सवाल है सबका ये
कि क्या पढ़ने वाला पागल है?
अरे जवाब है सबके हाथों में,
'क्या पाँचों उंगलियाँ बराबर है?'
सबका नज़रिया अलग है, सबके अरमान अलग।
बस इत्ती सी बात पे क्यों आग जाती है सुलग?
गर सब हो जाते अव्वल तो खुदा क्यों समय गँवाता?
एक शरीर बस एक ही मकसद,
इतनी कला वो क्यों दिखाता?
अलग हैं चेहरे अलग है ज्ञान,
अलग मकसद से भेजा है उसने।
गर सबको एक राह पे चलना था,
तो सौ राह वो क्यों बनाता?
सीखा था शुरुआत से, कि कला सँवार के रहना,
सिखा दिया दुनिया ने अब,
"कलाकार?!?!, तू बस गँवार ही रहना!"
दरअसल सीखना अब तुझे है खुदा,
रास्ता मैं भटक रहा हूँ,
तेरे सफलता की राह में
ज़रा सा अटक रहा हूँ।
है भरोसा मुझको खुदपर, जानता हूँ के हूँ ठीक मैं,
एक निराशा और बोला सबने के हूँ सबसे ढींठ मैं।
वाह! समझ गया हूँ दुनियादारी,
सीख रहा हूँ ज़ात में रहना।
कि अब तो ज़ात ने भी सीखा दिया मुझको औकात में रहना।
चलो किया सब्र कि ज़िंदगी है, संवरेगी कभी तब होगा सब,
कि अब तो सिखा दिया ज़िंदगी ने ही अपनी औकात में रहना।
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निराशा से भरे एक समय में मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। हर रास्ते बंद लग रहे थे, गायब होते दिख रहे थे, दूर जा रहे थे। ऐसे समय में सिर्फ इस कला ने मुझे उभारा और डूबने से बचाया। कागज और कलम के हाथ में आते ही एक अलग सी ताकत का एहसास होता है। उस निराशा भरे लम्हें को पन्नों पर उतारकर मेरा मन हल्का हुआ था। आशा करता हूँ, आप उस भाव को महसूस कर पाएँगे।