जीवन रहस्य  SUBRATA SENGUPTA

जीवन रहस्य

SUBRATA SENGUPTA

कड़वे घूँट पी-पीकर
इतने कड़वे हो गए,
अब जम-जम के पानी भी
नीम लगने लगे।
 

हृदय पर टाँके लगते-लगते
इतने चिथड़े हो गए,
अब तो टाँके पर
टाँके लगने लगे।
 

रिश्ते निभाते-निभाते
सारी उम्र गुज़र गई,
पग लड़खड़ाते ही
सब बेगाने लगने लगे।
 

वफ़ा से साथ निभाने की
वायदे करने वाले,
वक़्त की करवटों से सब
अजनबी लगने लगे।
 

जीवन के ज्वार-भाटे में बह गए
गोते लगाते-लगाते अब,
घुटने भर पानी भी
समंदर से गहरे लगने लगे।
 

जीवन के ताने-बाने के जाल में
फँस कर रह गए,
मकड़ी के जाल में फँसे कीट-पतंग
की तरह बेजान लगने लगे।
 

बचपन बीता नादानी में
जवानी अक्कड़ में जिए,
केश श्वेत होते ही
धरती के मेहमान लगने लगे।
 

जीवन के समंदर में तैरते-तैरते
किनारे मिल गए,
चार कन्धों पर सवार होकर
आखिरी मंज़िल के रास्ते हसीन लगने लगे।

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