नफ़रतें Ravi Panwar
नफ़रतें
Ravi Panwarउधार की ये ज़िन्दगी, उधार देना चाहता हूँ,
एहसान तेरे वो सभी, उतार देना चाहता हूँ।
चाहता हूँ कि लौह बढ़े, नफरतों की आग में,
जलाके अपने वहम को, क़रार देना चाहता हूँ।
भूल कैसे जाने दूँ, जो कैद मेरे सीने में,
उन रंजिशों को थोड़ा-थोड़ा, प्यार देना चाहता हूँ।
बाद मेरे वो मुझे, कितना भी चाहे कोस ले,
पर इस दफ़ा, एक बददुआ, उपहार देना चाहता हूँ।
कि वो रखें महफ़ूज मुझको, और मैं रहना चाहूँ ना,
ऐसा एक बद्नुमा, इज़हार देना चाहता हूँ।
और, बनाके उसको बेग़ुनाह, दोज़ख में चलना है "रवि",
मैं तो उसकी रुह को, मजार देना चाहता हूँ।