दिल्ली का दर्द  Ravi Panwar

दिल्ली का दर्द

Ravi Panwar

हर तरफ़ धुँआ धुँआ, मिट गई बहार थी,
दिल्ली के दिल को नोंचने एक मौत बेक़रार थी।
 

तिनका-तिनका जोड़कर बनाया था जो आशियाँ,
वो घोंसला उजड़ गया और चिड़ियाँ भी फ़रार थी।
 

कौन समझे मतलबी सियासतों के पैंतरे,
आग की लपटों में भी एक मज़हबी दीवार थी।
 

काम पर जाना था उनको और दुकानें बंद हैं,
कई जल के काली हो गईं, कई पड़ गई दरार थी।
 

ईंट, कंकड़, पत्थरों से लिपटा लहू ये पूछता,
मेरे रहबर ये बता वो कौन सी सरकार थी।
 

ख़ौफ़ के मंजर की, कैसे कहूँ मैं दास्ताँ,
जिसका बेटा मर गया वो माँ बड़ी लाचार थी।
 

कौन हिन्दू, कौन मुस्लिम, कौन है ये तो बता,
दिन क़यामत के लगी, लम्बी बहुत कतार थी।
 

भल दूर इस शहर मैं महफ़ूज बैठा है रवि,
हर लफ्ज़ मेरे जहन में दिल्ली का ग़म-गुसार थी।
 

ग़म-गुसार - हमदर्द

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