बन ना सको तुम राम अगर SANTOSH GUPTA
बन ना सको तुम राम अगर
SANTOSH GUPTAजला देना रावण को बेशक पर
भीतर के दशानन को भी हरा देना,
लड़ सके जो मन के रावण से
एक राम हृदय में जगा लेना।
था कर्मों से असुर वो पर
बुद्धि से था वो महाज्ञानी,
दस सर वाला तेजस्वी था वो
पर जरा सा अभिमानी।
कर देना वध उस लंकापति का
पर अहंकार को भी मिटा देना,
दंभ और दर्प के कारण तुम
दानव खुद को ना बना लेना।
सर्वधर्म का अनुपालन कर
खुद को राम बना लेना,
अगर राम ना बन सको
रावण बनकर ही दिखा देना।
त्रेता के उस तपस्वी सा
महाकाल को नचा देना,
कर मंत्र का जाप निरंतर
अपनी भक्ति भी दिखा देना।
किया हरण सीता का यद्यपि
मर्यादा में रहकर उसने,
पड़ने नहीं दी जानकी पर
अपनी काली छाया भी उसने।
शास्त्रोचित आचरण का
निर्वाह दशानन भी करता था,
कहलाकर भी दानव वह
देवों सा प्रण करता था।
देखकर रावण की कांति
राम भी मुग्ध हुए थे,
रची कथा रामायण की
जब दोनो में युद्ध हुए थे।
इस दशहरे दसों सर को
फिर एक बार जला देना,
जलाने से पहले रावण को
अधर्म की आग बुझा देना,
अगर राम ना बन सको
रावण बनकर ही दिखा देना।
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आज के बुरे इंसान रावण से भी बद्तर हैं। हम रावण को पाप का प्रतीक मानते हैं पर वह एक महाज्ञानी, तपस्वी एवं मर्यादा में रहने वाला ब्राह्मण पुत्र दानव था जो आज के कलयुगी मनुष्य की तुलना मे श्रेष्ठ था। आज का मानव महापापी और अधर्मी हो चुका है। मेरी यह कविता इसी भाव से प्रेरित एक त्वरित रचना है।