सैनिक की अर्थी  YUGESH KUMAR

सैनिक की अर्थी

YUGESH KUMAR

एक सैनिक हूँ,
वही, जिसकी पहचान
उसकी वर्दी से होती है,
और हम मरते नहीं
हम शहीद होते हैं।
मैं भी कल ही शहीद हुआ
मुझे इस बात का गुरुर है,
कि भारत माँ के लिए जो कुछ
कर सकता था मैंने किया,
अफ़सोस बस ये है
कि मेरी वो माँ........
मेरा गला रुँध जाता है,
वो औरत कितनी मज़बूत है।
 

मैंने सुना है कि
मेरे शहीद पिता को देखकर,
उसने बड़ी हिम्मत से
अपने रंगीन लिबास को निकाल कर
सादा लिबास ओढ़ लिया था,
वो टूटी थी पर बिखरी नहीं
ताकि मैं ना बिखर जाऊँ।
पर अब इतना आसान न होगा
कि वो मज़बूत औरत
अपनी बहू के लिबास को सादा कर दे।
 

सुना है घर में खबर जा चुकी है,
पर पत्नी को बस इतना पता है
कि मुझे थोड़ी चोट लगी है
पर मैं वापस आ रहा हूँ।
चोट लगना हमारे लिए बड़ी बात नहीं
वो बस खुश है,
एक सुकून सा है चेहरे पर
कि घर के छोटे सिपाही को
अब झूठा दिलासा नहीं देना होगा,
पर अब तक वह झूठ
एक नितांत सत्य बन चुका है,
और मुझे तिरंगे में लपेटा जा रहा है।
 

सुना है देश में अब हर किसी को
तिरंगे से लपेट रहे हैं,
अच्छी बात है!
इस से तिरंगे की इज्जत कम नहीं होती
हाँ, पर हमारी ज़रूर होती है।
पर इतना सोचने का वक़्त कहाँ है,
मेरी अंतिम यात्रा उन्हीं गलियों से गुज़रेगी
जहाँ मैंने चलना भागना सीखा था,
मेरी पहली और अंतिम यात्रा उसी पथ पर,
फर्क बस ये होगा
पहले माँ पीछे भागती थी
अब एक हुज़ूम पीछे होगा।
 

सुना है सुबह तक
मैं अपने गाँव पहुँच जाऊँगा,
मैं जिस क्षितिज का सूरज था
कल अस्त भी वहीं हो जाऊँगा।
सुबह 5 बजे मैं गाँव पहुँचा,
लोगों को देख ऐसा लगा
मानो गाँव सोया ही नहीं था,
उस भीड़ में हर चेहरे को
मैं पहचानता था,
मुझे वो चाचा भी दिखे
जिनकी दुकान से मैं बचपन में
टॉफियाँ चुराया करता था,
और हर बार वो मुझे पकड़ लेते थे।
आज उन्होंने अपने आँसू
चुराने की कोशिश की
पर आज मैंने उन्हें पकड़ लिया।
 

बोलने को बहुत कुछ है मेरे पास,
मेरे वो दोस्त भी खड़े हैं
जिनके साथ मैंने घूमने की
कितनी ही योजनाएँ बनाई थी,
जो कभी पूरी न हो सकीं।
इसलिए शायद वो साथ घूम रहे थे
कि मेरी आखरी यात्रा में ही सही
वो इच्छा भी पूरी हो जाए।
 

मैं हर उस गली से घूमा
एक-एक मिट्टी का कण
मुझे पहचान रहा था
और मैं उन्हें।
मैं घर से दूर ज़रूर था
पर जुदा कभी नहीं,
अचानक हवा का झोंका
मुझ पर पड़े तिरंगे को छूता चला गया,
मानो पूछना चाह रहा हो
फिर कब आना होगा।
मैं जवाब सोच भी न पाया था
कि दूर रुदन की आवाज़ आयी,
बिल्कुल जानी पहचानी सी
दूर दो बिम्ब दिखे
वो मेरी पत्नी और माँ थी,
दोनों को देख मेरा हृदय चीत्कार गया,
ऐसी असह्य पीड़ा मुझे कभी नहीं हुई,
वो मेरे मृत शरीर को अनावृत कर
ऐसे लिपटी मानो एक छोटा बच्चा
अपने खिलौने को जोर से पकड़ कर
अपने पास रखने का
निरर्थक प्रयास करता रहता है।
 

आज एक और छोटे बच्चे ने
अपने माँ के आँचल को जोड़ से पकड़ा था,
मुझे अब अंत्येष्टि चाहिए थी
उस गोली ने मुझे जितना
क्षत-विक्षत नहीं किया था
उस से कहीं ज्यादा इस दृश्य ने
मेरी आत्मा को किया था,
कि तभी खुद को संभालते हुए
उस गर्वीली योषिता ने कहा
अपने पिता की तरह बनोगे?
बच्चे ने तुतलाते हुए कहा "हाँ!"
उसके अस्पष्ट शब्द मुझे
स्पष्ट निर्देश दे गए
कि अब मैं सो सकता था
एक बहुत लंबी नींद
चैन से, अभिमान से।

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