मज़दूर और महामारी YUGESH KUMAR
मज़दूर और महामारी
YUGESH KUMARएक रोज़ थक के चूर मैं
लेटा जो था जमीन पर,
शोर मचा, वो कह रहे
फैला है कुदरत का कहर,
अब डर नहीं सताता मुझे
पेट भरना जैसे एक समर।
मैं आज फिर सोया रहा
आँतों को अपनी चापकर,
ऐलान हुआ बंद हुई फ़िज़ा
कैसे कटे अब रहगुज़र।
"मज़दूर" था "मज़बूर" मैं
ठोकरों का दस्तूर मैं,
न मैं नामचीन न मज़हबी
बस भूखा एक मज़दूर मैं।
जब बंद सारे रास्ते
तरसते अपनों के वास्ते,
मैं मग पैदल ही चला
एक आस को तलाशते।
मीलों का था सफर
चेहरे आँखों में टटोलते,
धूप मुझको न लगी
गाँव बच्चों को देखा खेलते।
एक होड़ लोगों में बड़ी
हमारी किसी को क्या पड़ी,
हम सैकड़ों तादाद में है
हम आफत लगते हैं बड़ी।
सोचता मैं और क्या
मंद साँसे फिर हुई,
एक आह ली फिर हारकर
अपनों से माफी माँगकर।
धुँधला हुआ देखो सकल
हैरत हुई ये देखकर,
उँगली इशारा कर रही
न खत्म होती उस राह पर।
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COVID-19 भारत में एक महामारी बनकर उभरी। जहाँ एक भय का माहौल हो गया वहीं कुछ नामचीन, मज़हबी इसे आँखमिचौली का खेल समझ बैठे। हालाँकि उनका खयाल खूब रखा गया। विदेशों से नागरिकों को विशेष विमानों से लाया गया। ऐसे में देश में एक ऐसा वर्ग था जिसकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं था। वह वर्ग था "मज़दूर"।जब आक्रोश बढ़ा तब सरकारें, लोग आगे बढ़कर आए। पर इस बीच कई मज़दूर इस महामारी के दौर में "भूख" की चिर बीमारी के आगे नतमस्तक हो गए क्योंकि वो "मज़दूर" थे शायद इसलिए "मज़बूर" थे ......