बुढ़ापा SANTOSH GUPTA
बुढ़ापा
SANTOSH GUPTAवह खुद से बार-बार पूछता है,
ये बुढ़ापा आखिर क्यों आता है,
खुद का ही शरीर बोझ क्यों बन जाता है।
जीवन चक्र की बिडंम्बना कैसी है,
जवानी लगा देते है जिसके बचपन में,
वही जवान होकर अपना बचपन कैसे भूल जाता है।
अंगुलियाँ पकड़कर चलना जो सीखते थे,
वही भला कैसे साथ छोड़ जाते हैं।
कभी जिसके बालों को पकड़कर खेला करते थे,
उन्हीं बालो के रंग बदलते ही, क्यों बदल जाते हैं।
आँसू की एक बूँद से पहले
हर जिद्द पूरी करता था जो,
पीड़ा के सागर के जल को आँखो में अब छिपाता है।
हाथी, घोड़े, गाड़ी, जहाज न जाने
कौन-कौन से खिलौनों से वह उसके लिए घर सजाता था,
अब तो वह एकांतवास में ही रह जाता है।
अपने पराए की कशमकश में
बुढ़ापे को बुढ़ापा ही समझ पाता है,
बचपन, जवानी तो सब पराए होते हैं,
मौत के वक्त बस यह बुढ़ापा ही रह जाता है।
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बुढ़ापा! जिंदगी का एक विचित्र सियापा। गीता का वह ज्ञान, जिसमें श्री कृष्ण कहते हैं कि हमारा अधिकार केवल कर्मों पर है, फल पर हम अपना अधिकार नहीं जमा सकते। शायद इसी ज्ञान को चरितार्थ करता है मनुष्य के जीवन का वह पड़ाव जब वह अपने जीवन भर के कड़े मेहनत, निःस्वार्थ कर्मों के फल को भोगने की अभिलाषा में, अपने कमजोर और लाचार शरीर को लेकर मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। उसकी उम्मीदों पर पानी फिर चुका होता है, वह उम्मीद नहीं करता, क्योंकि उम्मीद करना नए दुःखों का जनक बन जाता है।