बंदे सड़क SANTOSH GUPTA
बंदे सड़क
SANTOSH GUPTAसंघर्ष सबका एक नहीं है,
कुछ सुरक्षित हैं अगर घरों में
कुछ बेघर हैं बंद तालों में,
प्रत्यक्ष है गणित लोगों की
जो पड़े हैं अस्पतालो में,
असंख्य है ब्यौरा उनका
जो खड़े हैं सवालो में।
परिंदे चले घोंसले लगाने
उम्मीद की नई डालों में,
पैदल चलते अगणित दूरियाँ
पाने मंज़िल सब हालों में,
लेकर एक विश्वास दिलों में
दृढ़ता दिखाते चालो में।
महामारी नहीं उनकी बीमारी
जिससे ये जग जूझ रहा,
भूख है उनकी लाचारी
जिसकी दवा वो ढूँढ रहा।
बंदे सड़क मिशन से
वो बेधड़क चलते हैं,
महामारी से लड़ सकने को,
एक पूर्वयुद्ध वो लड़ते है।
एक चिंगारी बेशक फैली है
बन आग जगवालो में,
पर गरीबी के ईंधन में
धधक रही बन ज्वालो में,
धधक रही बन ज्वालो में।
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कोरोना का महाप्रलय, अनिश्चित कालीन तालाबंदी और गरीबों पर महामारी का महामार। फलस्वरूप सड़क मार्ग से जिस प्रकार प्रवासी मज़दूर लम्बी-लम्बी दूरियाँ तय करते नज़र आए, भोजन और निवास के लिए संघर्ष करते दिखे, ऐसी मार्मिक स्थिति से भावुक होकर कुछ पंक्तियाँ मेरे मन में आईं।