पाक-हिन्द  Pragya Mishra

पाक-हिन्द

Pragya Mishra

जो उन घरों को बाट सके
ऐसी कोई पत्थर की दीवार न थी,
उन्हें तो फ़कत कलम से कागज़ पर खींची नफरत
और षड़यंत्र की दीवार ने बाँटा है।
 

सियासत के ध्वजवाहकों ने
पताकाएँ तो दो फहरा दी,
पर लिपट कर उसमें शव
किसी माँ के बेटे का ही जाता है।
 

धर्म के नाम पे
दो देशों में तो बाँट दिया,
पर लाहौर में ख्याल आज भी
अमृतसर का ही आता है।
 

कंटीले तारों से सरहद भले ही बना दी हो
पर अज़ान को अरदास से कौन अलग कर पाया है?
ईद का हो या करवाचौथ का
चाँद तो एक ही है
उस चाँद को कौन अलग कर पाया है?
 

चेनाब को सिंधु से कौन अलग कर पाया है?
हम साँस तो एक ही हवा में लेते हैं,
उस हवा को भला कौन अलग कर पाया है?
 

सिवई की मिठास जो गुझिया में है
उसे कौन अलग कर पाया है?
लोहड़ी को जुम्मे से कौन अलग कर पाया है?
 

पर इस बँटवारे में हमने बहुत कुछ खो दिया है,
उस मुल्क को जिसे तुम दुश्मन कहते हो
वहाँ हमने अपना यार छोड़ दिया है।
 

उस मुल्क में हमने अपना शहर छोड़ दिया है,
इंतज़ार करती हुई आँखों में
अश्कों का दरिया छोड़ दिया है।
 

अपनी महबूबा के लिखे खतों को
उस तकिये के नीचे छोड़ दिया है,
अपनी अम्मी तो साथ ले आए हैं पर
जो राखी बाँधती थी उस बहन को वहीं छोड़ दिया है।
 

वहाँ की फसलों की महक को वहीं छोड़ दीया है,
आज एल्बम खोल के देखा तो याद आया
कि हमने अपने सपनों का जहान छोड़ दिया है।

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