एक खता ABHISHEK KUMAR GUPTA
एक खता
ABHISHEK KUMAR GUPTAएक खता जो हुई थी अंजाने मे मुझसे
उसी एक खता पर मैं इतरा रहा हूँ,
क्या जादू किया तूने उस वक्त मुझपे
जो अब तुझसे मिलने को उतला रहा हूँ।
मुझे ना खबर है ये कैसी पहेली
जो बिन देखे तुझसे मैं बात कर रहा हूँ,
इस अनजाने रिश्ते का क्या अंत होगा
बिना सोचे मैं जो ये काम कर रहा हूँ।
खुदा मेरा मुझसे भी रूठा हुआ है
मैं जो तेरी इबादत सुबह-शाम कर रहा हूँ,
तू है कौन मेरी मुझे इल्म तक नहीं है
बस तेरे लिए खुद को बदनाम कर रहा हूँ।
लाख चोटों से भी मैं ना घायल हुआ था
मगर आज तुझ पर मैं फ़ना हो रहा हूँ,
क्या हालत है मेरी तुझे कैसे बताऊँ
बस हाल-ए-दिल मैं खुद महसूस कर रहा हूँ।
तेरी सौंदर्यता से मुझको मतलब नहीं है
मैं तो बिन देखे तुझसे ही प्यार कर रहा हूँ,
अपने ख्वाबों में बना एक छोटा सा आशियाना
उस आशियाने में तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ।